1818 में जन्में कार्ल मार्क्स जर्मनी के एक लिब्रल परिवार का हिस्सा थे। भावुक तौर पर पिता से जुड़ाव ज़्यादा रहा था, मार्क्स के पिता ही थे जिन्होंने ने उन्हें शुरुआती शिक्षा दी। मार्क्स के लिए पढ़ना इतना आसान नहीं रहा, 1830 में वे ‘ट्राएर हाई स्कूल’ में दाख़िल हुए और 1832 तक यह बात चली कि ये स्कूल लिब्रल विचारधारा से प्रेरित शिक्षा देता है, यह बात मोनार्की के उस दौर में बर्दाश्त के लायक़ नहीं थी। नतीजतन वहाँ रेड पड़ी। अब तक कार्ल मार्क्स ने इस “लिब्रल” शब्द को पहचान लिया था।
मार्क्स 17 वर्ष के हुए तो पिता ने चाहा वक़ील बनें, पर उनका रुझान दर्शन शास्त्र यानी फ़िलॉसोफ़ी पढ़ने में था इसलिए वे ‘बोन यूनिवर्सिटी’ आ गए। यहाँ से मार्क्स का वह सफ़र शुरू हुआ जिसने उनमें कई प्रश्न इकट्ठे कर दिये। अब वे अक्सर ही ऐसे लोगों के संपर्क में आ जाते जो लिब्रल विचारधारा से प्रभावित भीड़ से अलग सोच रहे थे।
मार्क्स की वैचारिक ज़मीन का आरंभ
1936 कार्ल की विचारधारा को नई उहापोह में डालने वाला साल था। यह जी.डब्लू.एफ़ हीगल को पढ़ने से हुआ, जहाँ से उन्होंने ‘आइडियललिज़्म’ और ‘मटेरिअलिज़्म’ की समझ को विकसित किया। यहीं से मार्क्स के ‘डाई-इलेक्ट मटेरिअलिज़्म’ की नींव पड़ी।
मार्क्स क़ानून और दर्शन के मिलन से पैदा हुए विचार के प्रति जिज्ञासु थे। उनका मानना था कि ‘बिना दर्शन के कुछ पूरा नहीं हो सकता।’ (“without philosophy nothing can be accomplished”)
1842 में मार्क्स कोलोंग चले गए जहाँ एक रेडिकल अख़बार ‘Rhineland News’ से जुड़ने के साथ पत्रकारिता में उनके भविष्य की शुरुआत होती है। इसके बाद पत्नी के साथ पेरिस गए और पत्रकारिता से जुड़े अनेक काम किये।
अब तक मार्क्स को सामाजिक संरचना की गाँठों का एक सिरा मिल चुका था। एक लेख में वे लिखते हैं कि ‘ क्रांति एक दिन में नहीं आएगी, पर जब अत्याचार बर्दाश्त के बाहर हो जाएगा तब क्रांति का आगमन होगा और सब बदल जायेगा।’
मार्क्स और ऐंगल्स
मार्क्स 1844 में जर्मन समाजवादी फ़्रेडरिक ऐंगल्स से मिलते हैं जिससे उनके जीवन में सबसे बड़ा परिवर्तन घटता है। ऐंगल्स केवल द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के ही नहीं कम्युनिज़्म विचारधारा के सह-निर्माता भी थे। दोनों ने मिलकर विश्वभर में सर्वहारा को सचेत व शिक्षित करने का काम किया। दरम्यान दोनों ने कई क़िताबों पर साथ काम किया। ‘जर्मन आइडियोलॉजी’, ‘द पॉवर्टी ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी’ आदि क़िताबों ने इस कठिन दौर में लोकप्रियता के नए प्रतिमान गढ़े। इन क़िताबों ने ही मार्क्स और ऐंगल्स के बहुचर्चित काम “द कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो” की नींव रखी। यह एक राजनीतिक पुस्तिका थी जिसने पूँजीवाद से ओतप्रोत समाज में बढ़ती अमानवीयता और अधिकार का पक्ष रखा। दोनों विचारकों ने समाजिक सिस्टम में विडंबनाओं को कलमबद्ध किया।
इस पुस्तिका ने 1847 में मार्क्स द्वारा गठित राजनीतिक पार्टी ‘कम्युनिस्ट लीग’ के विचारों को दुनियाँ के सामने जस का तस रख दिया।
हलचल की आवाज़ और दास कैपिटल
कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो का प्रभाव तब दिखा जब इस वर्ष के ख़त्म होते-होते यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में विरोध प्रदर्शनों और हिंसक घटनाओं की वारदातें कानों में पड़ने लगीं, जिसे ‘Revolutions of 1848’ कहा गया।
इसके बाद 1849 में मार्क्स लन्दन चले गए और तमाम उम्र वहीं गुज़ारी, उनके साथ कम्युनिस्ट लीग का हेडक्वॉर्टर भी लन्दन में ही स्थापित हुआ।इसके बाद मार्क्स के साथ कई वैचारिक और व्यवहारिक घटनाएँ घटती हैं।
मार्क्स ने इन वैचारिक घटनाओं को शाब्दिक क्रांति में तब्दील किया और तब 1867 में उनकी क़िताब “The Das Kapital’ का पहला भाग प्रकाशित हुआ जिसने दुनियाँभर की अलग-अलग विचारधाराओं की जड़ें झगझोर कर रख दी। यह क़िताब विश्वभर में हाथों-हाथ बिकी।
1881 में पत्नी की मृत्यु के बाद मार्क्स बीमार रहने लगे और 1883 में उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद लीं। विडंबना ही है कि मार्क्स की अंतिम साँस तक वे किसी देश के नागरिक नहीं थे।
उनकी मृत्यु के बाद उनके दोस्त और विचारक फ़्रेडरिक ऐंगल्स ने शेष सभी काम पूरे कर उन्हें प्रकाशित किया।
क्रांति और मार्क्स
कार्ल मार्क्स से रूबरू होना कठिन है। मार्क्स को सरसरी निगाह से नहीं पढ़ा जा सकता, क्योंकि उनके भीतर का भाव जीवंत है। मार्क्स के लिए क्रांति जीवन की वास्तविकता से फ़रार हासिल करने का कोई ख़्याल नहीं थी, क्रांति उनके लिए एक सुंदर दुनियाँ की परिकल्पना की आधारभूमि थी।
कार्ल मार्क्स क्रांति को जीने के पक्षधर हैं। वे महज़ दर्शन के लिहाज़ से अपने बोल दिए को क़िताब के पन्नों में छिपाने का काम नहीं करते। वे समाज पर पैनी नज़र रखते हैं और उसकी नस-नस से वाकिफ़ हैं। इसका सुंदर उदाहरण उनकी क़िताब ‘दास कैपिटल’ में मिलता है जहाँ वे साम्यवाद से अधिक समय पूंजीवाद को देते हैं और बारीक़ी से उसकी दमनकारी नीतियों पर बात करते हैं। वे सर्वहारा वर्ग को समाज का सबसे ज़रूरी हिस्सा बताते हैं और उनके उठ खड़े होने की प्रतीक्षा करते हैं।
कुछ लोग साम्यवाद को भले की एक सुंदर सपने से अधिक कुछ न समझने की बात करते हों पर इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि मार्क्स ने समानता से परिपूर्ण इस सुंदर समाज को यथार्थ में तब्दील करने के रास्ते भी सुझाये हैं।
मार्क्स क्रांति को जीवन का उद्देश्य मानते हैं। यदि हम उनकी आत्मा में क्रांति के प्रति आत्मीयता का रचाव-बसाव निकटता से देखना चाहें तो ग़ालिब से हुए उनके दुर्लभ पत्राचार को पढ़ना चाहिए, जिसमें वे क्रांति को एक समतामूलक समाज की चाभी मानते हैं।
वे ग़ालिब को ज़मींदारों, प्रशासकों और धार्मिक गुरुओं को चेतावनी देने की बात करते हैं। उनकी अरज थी कि ग़रीबों और मज़दूरों का ख़ून पीना बंद हो। इसी पत्र में उन्होंने ज़ोर देकर दुनियाँ भर के मज़दूरों के एक होने की बात कही है। मार्क्स का व्यक्तित्व उनकी विचारधारा से इतर होकर भी इतर नहीं है, वह जीवंत है और आज भी कईयों के ज़िंदा होने की उम्मीद और संघर्षशील राह की नर्म मिट्टी है।